उत्तर प्रदेश में सियासी पारा चरम पर है और सबकी निगाहें मुस्लिम मतदाताओं पर टिकी हैं. आखिर हो भी क्यों नहीं? उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से करीब 147 सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमान मतदाता हार जीत का फैसला करने की कुव्वत रखता है. अगर हम 2012 की उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में मुस्लिम विजेता उम्मीदवारों की बात करें तो भारतीय इतिहास में पहली बार 69 उम्मीदवार विधानसभा में पहुँचे थे. इन 69 विजेता उम्मीदवारों में 43 समाजवादी पार्टी से चुनकर आये थे. हालाँकि, समाजवादी पार्टी ने 78 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. बहुजन समाजवादी पार्टी भी मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने में कोई कोताही नही बरतते हुए 85 उम्मीदवार मैदान में उतारे और इसमें 16 जीतकर विधानसभा आए. इससे साफ़ पता चलता है कि मुस्लिम मतदाताओं का उत्तर प्रदेश के सियासत में क्या रुतबा है?
हालाँकि, उत्तर प्रदेश की सियासत में इतनी निर्णायक भूमिका में होने के बावजूद वर्ष 2014 में हुए सोलहवें लोकसभा के चुनाव में एक भी मुसलमान सांसद यहां से जीत दर्ज कर पाने में कामयाब नहीं हो सके थे.
इस बार बसपा ने 403 में से 97 सीटों पर मुसलमान प्रत्याशियों को उतारा है. पार्टी मुखिया मायावती मुसलमानों से कह रही हैं कि अगर उन्होंने एसपी को वोट दिया तो इससे बीजेपी को ही फायदा होगा, लिहाजा वे ऐसा करके अपना वोट बेकार ना करें.
प्रदेश की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी करीब 20 प्रतिशत है. दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण के समीकरण को लेकर चुनाव जीतने की जुगत लगा रही बसपा ने मुसलमानों के एकजुट वोट की ताकत को समझते हुए इस कौम के लोगों का चुनाव टिकट वितरण में खास ख्याल रखा है. ऐसे में दलितों को लग रहा है कि बसपा उनके महत्व को लगातार कम कर रह रहा है.
मुस्लिम उम्मीदवारों कि संख्या में लगातार बढ़ोतरी की वजह साफ़ है. अगर मत प्रतिशत के दृष्टिकोण से देखें तो पता चलता है कि करीब 18 जिले ऐसे हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं की आबादी 20 से 48 प्रतिशत के बीच है, ऐसे में अगर किसी भी पार्टी के पास 20 से 25 प्रतिशत मतों का स्थानांतरण होता है तो वह दल उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज़ हो सकता है.
मुसलमानों का एकजुट वोट किसी भी सियासी समीकरण को बना और बिगाड़ सकता है. साल 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में मुसलमानों के लगभग एक पक्षीय मतदान की वजह से सपा को प्रचंड बहुमत मिला था.
समाजवादी पार्टी में मचे आपसी घमासान ने मुस्लिम मतदाताओं के सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है. अब वे ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि ऐन चुनाव के समय वह अपना नया सियासी मसीहा कहां से खोज कर लाएं?